नई दिल्ली:- सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत औपनिवेशिक काल के राजद्रोह कानून संबंधी प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को मंगलवार को पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेज दिया।
इससे एक महीने पहले ही केंद्र सरकार ने औपनिवेशिक काल के इन कानूनों को बदलने के लिए ऐतिहासिक कदम उठाया था और आईपीसी, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह लेने के लिए संसद में विधेयक पेश किए थे। इनमें राजद्रोह कानून को रद्द करने की बात की गई है।
प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने इस आधार पर वृहद पीठ को मामला सौंपने का फैसला टालने के केंद्र के अनुरोध को खारिज कर दिया कि संसद दंड संहिता के प्रावधानों को फिर से लागू कर रही है और विधेयक को स्थायी समिति के समक्ष रखा गया है।
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी इस पीठ में शामिल थे। पीठ ने कहा कि आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) कानून की किताब में बरकरार है और नया विधेयक भले ही कानून बन जाए, तो भी यह धारणा है कि कोई भी नया दंडात्मक कानून पूर्वव्यापी प्रभाव से नहीं, अपितु भविष्य में लागू होगा। वर्ष 1962 के फैसले में धारा 124ए की संवैधानिकता को बरकरार रखा गया था और इसे अनुच्छेद 19(1)(ए) के अनुरूप माना गया था।
पीठ ने कहा कि उस समय इस आधार पर कोई चुनौती नहीं दी गई थी कि आईपीसी की धारा 124ए संविधान के अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता) का उल्लंघन करती है। पीठ ने याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील की इस दलील पर गौर किया कि आईपीसी की धारा 124ए की वैधता की फिर से समीक्षा करना आवश्यक होगा क्योंकि प्रावधान की समीक्षा केवल संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के संबंध में की गई थी। इससे पहले न्यायालय ने इन याचिकाओं पर सुनवाई केंद्र के यह कहने के बाद एक मई को टाल दी थी कि सरकार दंडात्मक प्रावधान की पुन: समीक्षा पर परामर्श के अग्रिम चरण में है।