नई दिल्ली :- सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम 2004 से संबंधित एक महत्वपूर्ण मामले में अपना फैसला सुरक्षित रखा जिसका असर पूरे देश में धार्मिक शिक्षा पर हो सकता है। यह मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले से जुड़ा है, जिसने मार्च 2023 में मदरसा अधिनियम को रद्द कर दिया था।
इस फैसले से राज्य में मदरसों द्वारा दी जा रही धार्मिक शिक्षा पर सवाल उठे थे। याचिकाकर्ताओं ने इस अधिनियम के रद्द होने को चुनौती दी है, जिसके तहत उत्तर प्रदेश सरकार मदरसों को नियंत्रित और संचालित कर रही थी। इस मुद्दे का राष्ट्रीय महत्व इसलिए है क्योंकि यह धार्मिक संस्थानों में दी जा रही शिक्षा और राज्य के हस्तक्षेप से जुड़ा है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में बनी पीठ ने याचिका पर सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया। यह फैसला धार्मिक संस्थानों के अधिकार, राज्य का नियंत्रण, और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार से संबंधित कई संवैधानिक सवालों को स्पष्ट कर सकता है, जिसका प्रभाव देशभर के मदरसों और अन्य धार्मिक शिक्षण संस्थानों पर पड़ सकता है।इस महत्वपूर्ण निर्णय से शिक्षा प्रणाली और धार्मिक स्वतंत्रता पर सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण भी स्पष्ट होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने 21 अक्टूबर को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) की उन अधिसूचनाओं पर रोक लगा दी, जिनमें मदरसों की जांच करने और गैर-मुस्लिम छात्रों को औपचारिक शिक्षा प्रदान करने की बात कही गई थी। इस रोक के साथ सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 की वैधता तय होने तक इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर भी रोक जारी रखी है।
NCPCR द्वारा जारी किए गए पत्रों में यह कहा गया था कि सरकार मदरसों की जांच करे और सुनिश्चित करे कि वे शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 का पालन कर रहे हैं। साथ ही, केंद्र को निर्देश देने की बात कही गई थी कि उन मदरसों की मान्यता रद्द की जाए जो इस अधिनियम का उल्लंघन कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा इन अधिसूचनाओं पर रोक लगाने से यह स्पष्ट होता है कि न्यायालय इस संवेदनशील मुद्दे पर गहराई से विचार कर रहा है, क्योंकि यह धार्मिक स्वतंत्रता, राज्य की भूमिका और शिक्षा के अधिकार के बीच संतुलन से जुड़ा है।
कानून उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड का गठन करता है, जिसमें मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय के सदस्य शामिल होते हैं। बोर्ड के कार्यों का विवरण अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत दिया गया है, जिसमें पाठ्यक्रम सामग्री तैयार करना और निर्धारित करना तथा ‘मौलवी’ (कक्षा 10 के समकक्ष) से लेकर ‘फाज़िल’ (मास्टर डिग्री के समकक्ष) तक सभी पाठ्यक्रमों के लिए परीक्षा आयोजित करना शामिल है।
केंद्र सरकार द्वारा 3 फरवरी, 2020 को संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, 2018-19 तक भारत में कुल 24,010 मदरसों में से 60% से अधिक – 14,528 – यूपी में थे। इनमें 11,621 मान्यता प्राप्त मदरसे शामिल थे। 2023 में यूपी मदरसा शिक्षा बोर्ड की परीक्षा – जो कक्षा 10 और कक्षा 12 के बराबर है – में लगभग 1.69 लाख छात्र बैठे।
मदरसा अधिनियम, 2004
यह अधिनियम मदरसा शिक्षा के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करता है, जहां राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के पाठ्यक्रम के अलावा धार्मिक शिक्षा भी प्रदान की जाती है।इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 22 मार्च के फैसले में उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 को तीन मुख्य आधारों पर असंवैधानिक घोषित किया गया।
धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन: उच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मामलों का हवाला देते हुए कहा कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार करे, किसी विशेष धर्म या धार्मिक संप्रदाय का पक्ष न ले। मदरसा अधिनियम के तहत, मदरसों में इस्लामी धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाता था, जबकि आधुनिक विषय या तो अनुपस्थित थे या वैकल्पिक। न्यायालय ने इसे धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन माना।
2. धर्म के आधार पर शिक्षा का भेदभाव: अदालत ने कहा कि राज्य का कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों को धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान करे। राज्य द्वारा संचालित या मान्यता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य बनाना संविधान में प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता और समानता के अधिकारों का उल्लंघन करता है। यह शिक्षा प्रणाली धर्म के आधार पर भेदभाव को बढ़ावा देती है।
3. सरकारी हस्तक्षेप: अदालत ने यह भी देखा कि राज्य द्वारा संचालित या नियंत्रित मदरसों में इस्लामी धार्मिक शिक्षा का प्रावधान सरकारी हस्तक्षेप की सीमाओं का उल्लंघन करता है। संविधान के तहत राज्य को धार्मिक शिक्षा देने का अधिकार नहीं है, खासकर तब जब वह शिक्षा किसी विशेष धर्म पर केंद्रित हो।इस फैसले के कारण राज्य में मदरसों के संचालन और उनमें दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा पर गहरा प्रभाव पड़ा है।
केंद्रीय कानून के साथ टकराव: हाईकोर्ट ने माना कि मदरसा बोर्ड को डिग्री देने का अधिकार देने वाले मदरसा अधिनियम के प्रावधान विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम, 1956 (यूजीसी अधिनियम) के साथ टकराव में हैं। इसने कहा कि यूजीसी अधिनियम की धारा 3 के तहत केवल विश्वविद्यालय या “विश्वविद्यालय माने जाने वाले संस्थान” ही डिग्री दे सकते हैं, और “कोई भी अन्य व्यक्ति या प्राधिकरण, जिसमें कोई मदरसा या मदरसा बोर्ड शामिल है, कोई डिग्री नहीं दे सकता है।”
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष तर्क
अक्टूबर 2024 में सुनवाई के दौरान दो मुख्य प्रश्न उभरकर सामने आये।सबसे पहले, क्या मदरसा “धार्मिक शिक्षा” या “धार्मिक निर्देश” देता है। सुश्री अरुणा रॉय बनाम भारत संघ (2002) में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों के बीच अंतर किया।
न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 28 के अनुसार राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा, जैसे धार्मिक पूजा के लिए अनिवार्य उपस्थिति, की अनुमति नहीं है। लेकिन धार्मिक शिक्षा, या “धर्मों के बारे में शिक्षा” का उद्देश्य छात्रों को “सांप्रदायिक सद्भाव लाने के लिए” विभिन्न धर्मों के बारे में सिखाना था, न्यायालय ने कहा।
21 अक्टूबर को सुनवाई के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी ने तर्क दिया कि “उच्च न्यायालय ने गलत तरीके से विनियमन को धार्मिक निर्देश के साथ जोड़ दिया है और इस प्रकार कहा है कि धार्मिक निर्देश संविधान द्वारा प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन करता है”।
दूसरा , क्या उच्च न्यायालय द्वारा सम्पूर्ण अधिनियम को निरस्त करने का निर्णय सही था, या फिर उसे अपने निर्णय को विशिष्ट प्रावधानों तक सीमित रखना चाहिए था तथा सरकार को मदरसों के कामकाज को विनियमित करने की अनुमति देनी चाहिए थी।
22 अक्टूबर को सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि ‘(मदरसा) अधिनियम को खत्म करना बच्चे को नहाने के पानी के साथ बाहर फेंकने के समान है।’ उन्होंने कहा कि राज्य सरकार के पास अधिनियम के तहत नियम बनाने का अधिकार है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि दी जाने वाली शिक्षा अधिक धर्मनिरपेक्ष प्रकृति की हो।