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मोहन भागवत के बयान पर रामभद्राचार्य का पलटवार, कहा- धर्माचार्यों को निर्देश देने का अधिकार किसे?

प्रयागराज (उत्तर प्रदेश):-  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत के नासिक में दिए गए बयान ने धार्मिक और सामाजिक जगत में बहस छेड़ दी है। भागवत ने हिंदू धर्म की व्याख्या और उसमें कथित गलतियों पर सवाल उठाए थे। उनके इस बयान पर जगद्गुरु रामभद्राचार्य जो तुलसी पीठ के प्रमुख हैं ने खुलकर आपत्ति जताई।

रामभद्राचार्य ने कहा कि किसी भी संगठन या व्यक्ति को धर्माचार्यों को निर्देश देने का अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा धर्माचार्य सदियों से धर्म का मार्गदर्शन कर रहे हैं। जो लोग खुद धर्म की गहराई से परिचित नहीं हैं उन्हें ऐसे बयान देने से बचना चाहिए। रामभद्राचार्य ने कहा आरएसएस प्रमुख को यह अधिकार किसने दिया कि वह धर्माचार्यों को निर्देश दें? धर्म का संचालन धर्माचार्य करेंगे न कि कोई अन्य संगठन।

भागवत ने अपने बयान में कहा था कि हिंदू धर्म की गलत व्याख्या हो रही है और सही मार्गदर्शन की आवश्यकता है। इस पर रामभद्राचार्य ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा धर्माचार्य ही धर्म की सही व्याख्या कर सकते हैं। धर्म की व्याख्या को लेकर किसी अन्य व्यक्ति का हस्तक्षेप अनुचित है।

रामभद्राचार्य ने कहा कि भागवत को यह बयान देने से पहले संतों और धर्माचार्यों से चर्चा करनी चाहिए थी। उन्होंने कहा अगर वे चिंतित थे तो उन्हें एक बैठक बुलाकर संतों के साथ संवाद करना चाहिए था। यह मुद्दा संवाद से सुलझ सकता था लेकिन इसे सार्वजनिक मंच से उठाना उचित नहीं है।

मोहन भागवत ने नासिक में हिंदू समाज को लेकर कहा था कि आज धर्म की व्याख्या को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। समाज में सही दिशा देने के लिए संतों और धर्माचार्यों को एकजुट होना होगा। रामभद्राचार्य ने कहा कि धर्माचार्यों के प्रति ऐसे बयान हिंदू समाज में भ्रम पैदा कर सकते हैं। उन्होंने यह भी जोड़ा कि आरएसएस जैसे संगठन को अपने दायरे में रहकर काम करना चाहिए। धर्म की जिम्मेदारी धर्माचार्यों पर छोड़ देनी चाहिए।

यह विवाद धर्म और संगठन की भूमिकाओं के बीच स्पष्टता की कमी को उजागर करता है। हिंदू समाज में धर्माचार्यों की भूमिका हमेशा से सर्वोपरि मानी गई है। इस प्रकरण ने दिखाया कि संगठन और धर्मगुरुओं के बीच संवाद की कमी समाज में असहमति को बढ़ा सकती है। रामभद्राचार्य ने मोहन भागवत के बयान को सीधे चुनौती देकर यह स्पष्ट किया है कि धर्माचार्यों को उनकी भूमिका में किसी बाहरी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। यह विवाद अब धार्मिक और सामाजिक विमर्श के केंद्र में आ गया है।

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