पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रवीन सिंह ऐरन कहते हैं कि लोकतंत्र के चारों खंभों के बीच शक्ति संतुलन का सिद्धांत गड़बड़ा गया है। देश-प्रदेश की राजनीति में यह सबसे चिंतनीय विषय है। एक-दूसरे को नियंत्रित करने और संतुलन की संविधान की मूल अवधारणा के विपरीत यह आगे बढ़ रहा है। वर्ष 2010 के बाद बड़े पैमाने पर इसमें बदलाव देखे जा रहे हैं। हमारे लोकतंत्र के लिए यह कोई शुभ संकेत नहीं है।जाति और धर्म का प्रयोग भारतीय राजनीति में शुरू से होता रहा है। मैं भारत की समकालीन राजनीति में बदलाव नवंबर 2010 से मानता हूं, जब अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत भ्रमण के बाद स्वदेश लौटे। उसके बाद राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदला। टूजी घोटाला, निर्भया कांड, कॉमनवेल्थ गेम व हेलीकॉप्टर घोटाला, अन्ना हजारे का आंदोलन और जनलोकपाल जैसे मुद्दे सामने आए। सबसे खास बात है कि लोकतंत्र के चारों खंभों के बीच नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत का सामंजस्य गड़बड़ाया। संविधान का यह मूल तत्व मद्धिम पड़ने लगा। मीडिया के बड़े हिस्से पर देशी-विदेशी कुछ बड़ी पूंजीवादी ताकतों का कब्जा हो गया। साथ ही कांग्रेस की क्षरण की प्रक्रिया भी प्रारंभ हुई। कांग्रेस की मध्य मार्ग की लाइन धूमिल करते हुए आर्थिक विषमता बढ़ाने वाली नीतियां लागू की गईं। इतना ही नहीं उन्हें अच्छी तरह से आम लोगों के दिलो-दिमाग में बैठाया भी गया। आने वाले वक्त में आर्थिक विषमता बढ़ेगी। निर्णय लेने और चुनावी नतीजे प्रभावित करने की शक्ति कुछ देशी-विदेशी पूंजीवादी हाथों तक केंद्रित होकर रह जाएगी।

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