नई दिल्ली:- सरकार 2025 में जनगणना कराने की तैयारी कर रही है, जिसके साथ जातीय जनगणना कराने की भी चर्चा है। इससे क्या भ्रम टूटेंगे और राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा इस पर वरिष्ठ पत्रकारों ने अपने विचार साझा किए हैं। इन दिनों भारत में जनगणना को लेकर चर्चाएं तेज हैं। हाल ही में खबर आई है कि सरकार साल 2025 में जनगणना कराने की योजना बना रही है। इस संदर्भ में यह सवाल उठ रहा है कि क्या इस जनगणना के साथ जातीय जनगणना भी होगी? अगर जातीय जनगणना होती है, तो इसका देश की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा?
वरिष्ठ पत्रकारों के अनुसार जातीय जनगणना का उद्देश्य केवल आंकड़ों को एकत्र करना नहीं है बल्कि इससे समाज में मौजूद जातियों की संरचना और उनकी राजनीतिक पहचान को भी समझा जा सकेगा। अनुराग वर्मा का मानना है कि राहुल गांधी जातीय जनगणना को अपनी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा बनाना चाहते हैं। उन्होंने हरियाणा में इसका प्रयास किया लेकिन परिणाम अनुकूल नहीं रहे। इससे यह सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस अपनी पुरानी रणनीतियों के माध्यम से सत्ता में वापस आ पाएगी।
समीर चौगांवकर ने कहा कि जातीय जनगणना कराने का समर्थन सभी दल कर रहे हैं। उनका मानना है कि इस बार जनगणना को लेकर सरकार पर दबाव है और इसे 2029 में होने वाले परिसीमन के साथ जोड़ा जा सकता है। रामकृपाल सिंह ने इस बात पर जोर दिया कि जनगणना संविधान के तहत होनी चाहिए और निजता का ध्यान रखा जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि जनगणना का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए।
अवधेश कुमार ने बताया कि यह जनगणना पिछले 70 वर्षों में पहली बार सामाजिक और आर्थिक आंकड़े इकट्ठा करेगी जिसमें विभिन्न सवाल पूछे जाएंगे जैसे कि परिवार के पास कौन से साधन हैं और घर के मालिक कौन हैं। राकेश शुक्ल ने चेतावनी दी कि जब जातियों की सही संख्या सामने आएगी तो यह राजनीति पर गहरा प्रभाव डाल सकता है। उन्होंने बताया कि मुस्लिम समुदाय में भी विभिन्न जातियां हैं और उनकी पहचान आवश्यक है।
विनोद अग्निहोत्री का मानना है कि जातीय जनगणना से कई भ्रम टूटेंगे। यदि मुसलमानों में जातियां हैं तो उन्हें क्यों छिपाया जाए? यह डेटा आरक्षण और सुविधाओं के आवंटन में मदद करेगा।
यदि जातीय जनगणना होती है, तो यह न केवल जातियों की पहचान को स्पष्ट करेगी बल्कि भारतीय राजनीति में एक नई दिशा भी दे सकती है। इसके साथ ही इससे राजनीतिक दलों को अपनी नीतियों में बदलाव करने की आवश्यकता महसूस हो सकती है। इस विषय पर वरिष्ठ पत्रकारों के विचार इस दिशा में महत्वपूर्ण संकेत देते हैं कि भारत में जनगणना और जातीय सर्वेक्षण का मुद्दा केवल आंकड़ों का संग्रह नहीं है बल्कि यह समाज की संरचना और राजनीतिक परिदृश्य में गहरे बदलाव का संकेत भी है।