लखनऊ (उत्तर प्रदेश): सुप्रीम कोर्ट ने एक 40 साल पुराने बलात्कार मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। मामला 19 मार्च 1984 का है जब लखनऊ में एक ट्यूशन टीचर ने अपनी छात्रा का रेप किया। इस केस में ट्रायल कोर्ट ने 1986 में आरोपी को दोषी ठहराया था लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट को फैसला बरकरार रखने में 26 साल लग गए और सुप्रीम कोर्ट ने अब 15 साल बाद अपना अंतिम फैसला सुनाया है।
क्या था पूरा मामला?
पीड़िता रोजाना की तरह ट्यूशन पढ़ने गई थी जहां टीचर ने अन्य दो लड़कियों को बहाने से बाहर भेज दिया और कमरा बंद कर दुष्कर्म किया। बाहर खड़ी लड़कियां दरवाजा पीटती रहीं लेकिन आरोपी ने दरवाजा नहीं खोला। कुछ देर बाद पीड़िता की दादी मौके पर पहुंचीं और दरवाजा खुलवाकर उसे बचाया।
जब परिवार एफआईआर दर्ज कराने गया तो आरोपी और उसके परिवार ने उन्हें डराने-धमकाने की कोशिश की लेकिन फिर भी एफआईआर दर्ज कराई गई।
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर पीड़िता के निजी अंगों पर कोई चोट नहीं भी है तब भी उसकी गवाही आरोपी को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त है। जस्टिस संदीप मेहता और प्रसन्ना बी वराले की बेंच ने कहा कि मेडिकल रिपोर्ट में चोट न होने से रेप की पुष्टि से इनकार नहीं किया जा सकता।
इतनी देरी क्यों हुई?
इस मामले में न्याय मिलने में तीन स्तरों की न्यायपालिका ने 40 साल लगा दिए।
– 1986: ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराया।
– 2012: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 26 साल बाद ट्रायल कोर्ट का फैसला बरकरार रखा।
– 2024: सुप्रीम कोर्ट ने अब अंतिम फैसला सुनाया।
क्या कहा कोर्ट ने?
– “हर मामले में यह जरूरी नहीं कि रेप में पीड़िता को गंभीर चोटें आई हों।”
– “बलात्कार के मामलों में पीड़िता की गवाही ही सबसे अहम सबूत होती है।”
– “पीड़िता की मां के चरित्र का इस केस से कोई लेना-देना नहीं है।”
देरी से मिला न्याय लेकिन फैसला ऐतिहासिक
40 साल बाद आए इस फैसले ने बलात्कार मामलों में पीड़िता की गवाही को ही सबसे मजबूत सबूत मानने का बड़ा संदेश दिया है। हालांकि यह केस भारतीय न्याय प्रणाली की धीमी गति को भी उजागर करता है।