इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश):- कुंभ मेला जिसे भारत के सबसे बड़े धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में गिना जाता है का इतिहास केवल आध्यात्मिक महत्व तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह सत्ता और आर्थिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। अकबर के शासनकाल में कुंभ मेले पर एक तरह का टैक्स भी लगाया गया था। मुग़ल सम्राट अकबर ने कुंभ मेला आयोजित करने वाले पवित्र स्थलों से राजस्व वसूलने के लिए एक कर व्यवस्था लागू की थी जिससे सरकार को बड़ी आय प्राप्त होती थी। यह टैक्स जिसे “कुंभ कर” कहा जाता था धर्म और राजनीति के बीच जटिल संबंधों को दर्शाता है।
इतिहासकारों के अनुसार कुंभ मेला सदियों से विभिन्न धार्मिक संप्रदायों और संन्यासियों के बीच संघर्ष का भी मैदान रहा है। विशेष रूप से नागा और बैरागी संन्यासी हमेशा एक दूसरे से अपने आध्यात्मिक प्रभुत्व की लड़ाई लड़ते रहे हैं। ये संघर्ष केवल व्यक्तिगत मतभेदों के कारण नहीं बल्कि सामूहिक और धार्मिक पहचान से जुड़ी राजनीतिक ताकतों के कारण भी थे।
कुंभ मेले में आस्था और धर्म के साथ-साथ अंग्रेजों ने भी अपनी वाणिज्यिक नीति के तहत कमाई की। 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश सरकार ने कुंभ मेला आयोजित करने के नाम पर विभिन्न शुल्क और टैक्स वसूले जिससे मेले में आने वाले श्रद्धालुओं से राजस्व इकट्ठा किया गया। इसके साथ ही अंग्रेजों ने कुंभ मेले को एक पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित किया जिससे उन्हें आर्थिक लाभ हुआ।
यह घटनाएँ दिखाती हैं कि कैसे धार्मिक आयोजनों को सत्ता और आर्थिक उद्देश्य के लिए उपयोग किया गया जो भारतीय समाज के इतिहास और संस्कृति पर गहरे प्रभाव डालते हैं।