अमेरिका:- अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की विदेश नीति के एजेंडे में शीर्ष पर सउदी और इजरायलियों को एक साथ बैठाना और कुछ पखवाड़े पहले चीनियों द्वारा किए गए सऊदी-ईरान मेल-मिलाप की तरह ही किसी समझौते पर हस्ताक्षर करना है।
2024 को फिर से बाइडेन के नीतिगत दांव चलाने पर नज़र रखने वाले इसे एक ऐतिहासिक सौदे के लिए इसे एक लंबी-चौड़ी बोली लगाने जैसी बातें क़रार दे रहे हैं,क्यंकि इस समझौते को दोनों देशों के नेताओं या दोनों देशों में कट्टर आम धारणा से रखी गयी लगभग असंभव शर्तों का सामना करना पड़ रहा है।
सऊदी अरब, या पहले अरबों का, इस “यहूदी” देश के साथ लगभग 80 साल पुराना विवाद था और 2,000 तक यहां उठने वाली आवाज़ें इज़राइल की तबाही का आह्वान करती रही थीं। जब दो खाड़ी देशों, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने अब्राहम समझौते के हिस्से के रूप में इज़राइल के साथ संबंधों को सामान्य बनाने में दाखिल हुए, तो राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा ज़ोर लगाने के बावजूद रियाद इससे दूर रहा।
अब तक रियाद अरब शांति पहल पर अड़ा रहा है, जो अरब क्षेत्रों से इजरायल की वापसी और फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना के साथ-साथ फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों की दुर्दशा के लिए “उचित समाधान” खोजने पर इजरायल के साथ सामान्यीकरण की शर्त रखता है।
यमन युद्ध में शामिल दो ऐतिहासिक प्रतिद्वंद्वी-सऊदी अरब और ईरान फिर भी विवेकपूर्ण आपसी समझ में एक दूसरे के साथ थे, जिससे कि अंततः शांति समझौता हो पाया। ऐसे में सवाल है कि रियाद और तेल अवीव इस मिसाल की राह पर क्यों नहीं चल पा रहे ? अगर यह लक्ष्य हासिल भी कर लिया जाए, तो वाशिंगटन के संरक्षण में ऐसा होने की संभावना नहीं है। सीधे शब्दों में कहें तो सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों ने अपनी रणनीतिक स्वायत्तता का प्रयोग करना शुरू कर दिया है। इसलिए, इसकी अत्यधिक संभावना नहीं है, ऐसे युग में जब एकध्रुवीय दुनिया बहुध्रुवीयता की ओर झुक रही है, खाड़ी देश वाशिंगटन को इस क्षेत्र के “प्रमुख प्रस्तावक और संचालक” के रूप में अमेरिका को फिर से स्थापित होने देंगे।
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