नई दिल्ली:- सुप्रीम कोर्ट में रुवार को उपासना स्थल क़ानून 1991 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई होगी। यह सुनवाई तीन जजों की विशेष पीठ द्वारा की जाएगी। कोर्ट के समक्ष इस मुद्दे पर कम से कम छह याचिकाएं लंबित हैं। भारतीय जनता पार्टी के सदस्य और वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने 2020 में इस कानून को चुनौती देते हुए एक याचिका दायर की थी। उनका तर्क है कि यह कानून भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्षता और समानता के सिद्धांतों के खिलाफ है। उन्होंने दावा किया कि यह कानून हिंदू समुदाय के धार्मिक अधिकारों को सीमित करता है।
इस याचिका के जवाब में जमियत उलेमा-ए-हिंद, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस कानून के समर्थन में याचिकाएं दायर की हैं। उनका कहना है कि यह कानून देश में सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
1991 का उपासना स्थल क़ानून: उद्देश्य और प्रावधान
उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि 15 अगस्त 1947 को भारत में जो धार्मिक स्थल जिस स्थिति में थे उनका स्वरूप बदला नहीं जाएगा।
महत्वपूर्ण प्रावधान:
सेक्शन 3:
किसी धार्मिक स्थल या पूजास्थल के स्वरूप में परिवर्तन करने का प्रयास अपराध है।
सेक्शन 4(1):
15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस स्वरूप में था वह वैसा ही बना रहेगा।
सेक्शन 4(2):
15 अगस्त 1947 के बाद धार्मिक स्थलों के स्वरूप को लेकर कोर्ट या किसी अन्य प्राधिकरण में लंबित सभी मामले रद्द माने जाएंगे।
सेक्शन 5:
इस कानून में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को छूट दी गई है क्योंकि यह मामला पहले से न्यायालय में लंबित था।
यह कानून ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा की शाही ईदगाह और अन्य धार्मिक स्थलों पर भी लागू होता है। हालांकि इसकी संवैधानिकता को लेकर सवाल उठाए गए हैं। आलोचकों का कहना है कि यह कानून धार्मिक अधिकारों को सीमित करता है जबकि समर्थकों का तर्क है कि यह सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने में सहायक है।
सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में इस मामले पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया था लेकिन अब तक इस पर कोई विस्तृत बहस नहीं हुई है। आगामी सुनवाई में इस मुद्दे पर विस्तृत चर्चा होने की संभावना है। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह सुनवाई भारत के धार्मिक और संवैधानिक ढांचे के लिए ऐतिहासिक साबित हो सकती है।