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एक ऐसे वक्त में जब राजनीति सत्य नहीं सत्याभास के सहारे चल रही है और सियासत के कथानक तथ्यों के वस्तुनिष्ठ विश्लेषण के बूते नहीं बल्कि पूर्वाग्रहों के जरिये शक्ल अख्तियार कर रहे हैं- अगर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुद को एक ऐसे उदारवादी नेता के रुप मे पेश कर रही हैं जो नरेन्द्र मोदी की सरकार से भारत के लोकतंत्र, सार्वजनिक संस्थाओं तथा संविधान को बचाने के लिए उठ खड़ा हुआ है तो इसमें अचरज की जरा भी बात नहीं. ममता बनर्जी तो मानकर चल रही हैं, जैसा कि उन्होंने कहा भी है, कि मौजूदा सरकार नफरत, आतंक और अराजकता फैलाने पर तुली हुई है.
कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार को सीबीआई के सवालों से बचाने के लिए अगर उन्होंने धरना करने जैसी नौटंकी का सहारा लिया तो इसकी कई वजहें हैं. ध्यान रहे, सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि राजीव कुमार सीबीआई के सामने हाजिर हों और करोड़ों के चिटफंड घोटाले में चल रही जांच में सीबीआई के साथ पूरा सहयोग बरतें.
अदालत की कार्यवाही तो खैर अपनी रफ्तार से चलती रहेगी लेकिन राजनीतिक मुहावरे और लोकतांत्रिक मान-मूल्यों को ठेंगा दिखाने के उस चलन को टोकना जरुरी है जो ममता बनर्जी की कथनी और करनी की एक खास पहचान बनकर उभरा है. ममता बनर्जी अगर आज दिन तक सवालों के घेरे में आने से बच पायी हैं तो इसलिए कि स्थानीय मीडिया उनके खिलाफ सवाल खड़े करने में डरता है और राष्ट्रीय फलक की मीडिया के दिग्गज दिल्ली को ही छोटा सा भारत मानकर उसपर कुछ ऐसा ध्यान टिकाए रहते हैं कि देश के बाकी हिस्सों में पेश आ रहे घटनाक्रम पर उनकी नजर अक्सर जाती ही नहीं. इसके साथ, एक बात और भी है. दरअसल उदारवादियों में एक खास किस्म का दृष्टिदोष रहा है- उदारवादी मानकर चलते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को छोड़कर और किसी नेता में कोई भी कमी नहीं- उदारवादियों की नजर में नरेन्द्र मोदी सारी बुराइयों की जड़ हैं.
ममता ने बीजेपी विरोधी गठबंधन का नेता बनने की उम्मीद पाल रखी है:
प्रतीकात्मक तस्वीरसूबे की सीमाओं में बंधकर रहने की जगह ममता बनर्जी की नजर अब ज्यादा बड़ी चीज पर है. उन्होंने बीजेपी-विरोधी गठबंधन का नेता बनकर उभरने की उम्मीद पाल रखी है और ऐसे में उनके काम करने के तरीके को लेकर ज्यादा व्यापक चर्चा होगी ही. उम्मीद की जा सकती है कि जो सवाल कब के पूछ लिए जाने चाहिए थे वो सवाल अब निश्चित ही पूछ लिए जाएंगे.
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के मन में लोकतंत्र, व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों, सार्वजनिक संस्थाओं तथा अदालत तक के लिए रत्ती भर भी आदर का भाव नहीं है. सूबे में उन्हें परमप्रतापी नेता की हैसियत हासिल है लेकिन इस हैसियत का रिश्ता उनपर लोगों के प्रेम से कम और उनके कामकाज के तानाशाही रवैए से ज्यादा है. ममता बनर्जी ने परमप्रतापी होने की अपनी छवि भय के सहारे कायम की है. चंद अवसरवादियों और कुछ भरोसे के काबिल माने जाने वाले लोगों को छोड़ दें तो बाकी सबके साथ उन्होंने सख्ती और दमन का तरीका ही अपनाया और इस तरह अपने प्रति भय का माहौल तैयार किया है. बंगाल में भय और धमकी का माहौल जारी है लेकिन किसी को इजाजत नहीं कि वो इसके बारे में बात तक कर सके.
विश्वविद्यालय के एक छात्र ने ऐसी हिम्मत की थी. यह 2012 का वाकया है जब तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी मुख्यमंत्री के रुप में एकदम नई थीं. उस छात्र ने सवाल-जवाब के फार्मेट में बने एक टीवी कार्यक्रम में ममता बनर्जी से तीखा प्रश्न पूछ लिया. बस फिर क्या था- ममता बनर्जी ने झट से माइक्रोफोन फेंका और मंच से यह कहते हुए हंगामा खड़ा कर दिया कि सवाल पूछने वाली स्टूडेन्ट माओवादी है. उन्होंने कार्यक्रम में शामिल हुए नौजवान छात्रों की उस छोटी सी जमात को माओवादी, एसएफआई और सीपीएम का कार्यकर्ता करार दिया. उनकी तुनकमिजाजी और घड़ी-क्षण बर्ताव बदलने की आदत बिल्कुल जाहिर सी है, लेकिन कभी भी उन्हें असहिष्णु नेता नहीं करार दिया गया. आज भी उनकी छवि पर यह लेबल चस्पा नहीं हुआ है.
शायद ममता बनर्जी को लगता है कि उनकी ज्यादतियों पर लोगों का ध्यान नहीं जाएगा, उन्हें संदेह का लाभ मिलता रहेगा. वे मानकर चलती हैं कि बस हल्की-फुल्की आलोचना होगी जो कमियों को छुपाती ज्यादा और उजागर कम करती है. अपने इसी विश्वास के कारण ममता बनर्जी ने बीते वक्त में लगातार मान-मूल्यों और आचार-व्यवहार की बनी-बनायी परिपाटियों का बड़ी बेहयाई से उल्लंघन किया है- कुछ ऐसा बर्ताव किया है कि उसके आगे बिगड़ैल तानाशाह भी पानी भरते नजर आएं. इस कारण ममता बनर्जी का यह दावा कि वो लोकतंत्र, संविधान, संघीय ढांचे तथा देश के संस्थानों को बचाने में लगी हैं- सिवाय एक विडंबना के कुछ और नहीं.
ममता बनर्जी के तथाकथित सत्याग्रह के साक्षी बने मैट्रो चैनल पर जारी नौटंकी में भी यह विडंबना अपने पुरजोर रुप में जाहिर हो रही थी. अपनी राजनीति के लिए महात्मा गांधी ने जिस राजनीतिक मुहावरे का इस्तेमाल किया था, उसे जुबानी दोहरा भर लेने से इस बात की गारंटी नहीं हो जाती कि ममता बनर्जी जिस मकसद से धरने पर बैठी हैं वह भी परम-पावन हो जाएगा. दरअसल ममता बनर्जी धरने के नाम पर जो कुछ कर रही थीं वह राजनीतिक मकसद साधने का एक दुस्साहसी प्रयास तथा इस सच्चाई को ढंकने की कोशिश कहा जाएगा कि सूबे की पुलिस सीबीआई के काम में अडंगा लगा रही है.
ममता की धरना नौटंकी:
धरने के नाम पर जब नौटंकी जारी थी उसी घड़ी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दो दफे रोका गया- कहा गया कि वे सूबे की सीमा के भीतर अपना हेलिकॉप्टर नहीं उतार सकते. योगी आदित्यनाथ को मजबूरन पड़ोसी राज्य झारखंड में उतरना पड़ा, वे पुरुलिया की अपनी रैली में सड़क के रास्ते पहुंचे.
योगी आदित्यनाथ के पश्चिम बंगाल पहुंचने पर उनकी हिफाजत में ना तो कोई पुलिस वाहन तैनात किया गया और ना ही कोई पुलिसकर्मी ही. टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में आया है कि योगी का काफिला एनएच 60ए पर बिना किसी हिफाजती इंतजाम के आगे बढ़ा. रिपोर्ट में ममता बनर्जी के हवाले से लिखा गया है कि: मैंने जब महाराष्ट्र और बिहार का दौरा किया था तो मुझे किसी भी सरकारी अतिथि-गृह में ठहरने की इजाजत नहीं थी. मैं इस बात को भूली नहीं हूं. बीजेपी ने आरोप लगाया है कि पार्टी के नेताओं को पश्चिम बंगाल में अतिथि-गृह में ठहरने की सुविधा मुहैया नहीं करायी जा रही. इसी आरोप के जवाब में ममता बनर्जी की ये बातें रिपोर्ट में दर्ज की गई हैं.
क्या संविधान को बचाने के लिए धरने पर बैठने का दावा करने वाली ममता बनर्जी बताएंगी कि उनकी सरकार का यह तुच्छ बर्ताव लोकतंत्र को बचाने का नमूना है या फिर उसे नीचा दिखाने का?
कहीं आप ये ना समझ लें कि इक्का-दुक्का घटनाओं के आधार पर यहां एक बड़ा फैसला सुनाया जा रहा है. सो आपको याद दिलाते चलें कि ममता बनर्जी ने बीजेपी के नेता सैयद शाहनवाज हुसैन तथा मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी सूबे में रैली करने से रोका है. सूबे की हुकूमत का यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के आदेश के असंगत है. सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी को बंगाल में रथयात्रा करने से तो रोका था लेकिन लोकसभा चुनावों के मद्देनजर रैली और जनसभा करने की इजाजत दी थी. यहां जरा यह भी याद करें कि धरना-स्थल से ममता बनर्जी ने बाकी बातों के साथ यह भी दावा किया कि वो अदालत का सम्मान करती हैं.
अमित शाह को रोका:
सूबे में बीजेपी के रैली और जनसभा करने से तृणमूल कांग्रेस को ऐसी क्या मिर्ची लगी है- यह समझ पाना मुश्किल है. कुछ दिनों पहले बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह को मालदा में विमान उतारने से रोक दिया गया था. जिला प्रशासन ने तर्क दिया कि निर्माण-कार्य जारी होने के कारण एयरपोर्ट अभी विमान उतारने की हालत में नहीं है. एक टीवी चैनल ने मौका-मुआयना किया तो देखा कि हैलीपैड एकदम साफ-सुथरी दशा में है.
खैर, अमित शाह बंगाल में पहुंचे तो जरुर लेकिन इसके पहले ममता बनर्जी यह दावा कर चुकी थीं कि सूबे में बीजेपी के अध्यक्ष का रैली करना अपने आप में सबूत है कि वो लोकतंत्र का सम्मान करती हैं. अब अगर हालात पर गौर करें यानी बीजेपी के पोस्टर, प्रचार सामग्री तथा इससे जुड़े ताने-पाने को नुकसान पहुंचाने की जो कोशिशें की जाती रही हैं उनपर नजर रखें तो फिर जाहिर है, ममता बनर्जी का कदम आपको उदार ही जान पड़ेगा.
जनसभा बुलाना और रैली करना लोकतंत्र की बुनियादी बातों में एक है. लेकिन विपक्षी पार्टी को इस हक से वंचित किया जा रहा है. जाहिर है, ऐसा करने के कारण ममता बनर्जी को यह कहने का नैतिक आधार ही नहीं रह जाता कि वो संविधान की रक्षा कर रही हैं, लेकिन मीडिया में बन रहे डेढ़ टंगरी के कथानक में ममता बनर्जी के बर्ताव को उनकी खास ‘अदा’ का नाम दिया जा रहा है- यह नहीं कहा जा रहा कि दरअसल उनके रुझान तो तानाशाही वाले हैं.
आपको याद होगा, ये वही मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हैं जिन्होंने जाधवपुर यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर पर गंभीर आरोप लगाए और गिरफ्तार किया- दोष यह बताया गया कि प्रोफेसर ने एक कार्टून को लोगों के बीच फैलाने का काम किया है जिसमें मुख्यमंत्री पर हल्का-फुल्का तंज किया गया था. कलकत्ता हाइकोर्ट ने आदेश दिया कि प्रोफेसर को क्षतिपूर्ति दी जाए.
हो सकता है, मुख्यमंत्री के इस कदम से आपको कोई अचरज ना हो- आखिर ये वही ममता बनर्जी हैं जिन्होंने बलात्कार के एक मामले को यह कहकर ठुकरा दिया था कि सारा कुछ बना-बनाया गप्प (शाजानो गल्पो) है. पार्टी के सहकर्मी और ममता बनर्जी की सरकार के मंत्री मदन मित्रा ने टीवी चैनल पर कहा था कि जिस औरत के घर पर बच्चे हैं, और जो अपने पति से अलग होकर रह रही है वो आखिर नाइट कल्ब किस लिए जाएगी.
धरने की जगह से मुख्यमंत्री ने अपनी रौ में यह भी दावा जताया कि वो हर तरह की आजादी की इज्जत करती हैं. विरोध-प्रदर्शन की जगह पर जमा मीडिया उन्हें याद दिला सकती थी कि 2017 में दो लोगों ने फेसबुक पेज पर दुर्गापूजा के दौरान आयाद ट्रैफिक-रेस्ट्रिक्शन की जब आलोचना की थी तो सूबे की हुकूमत ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था.
ममता बनर्जी ने देश की संस्थाओं के सम्मान को एक बड़ा मुद्दा बनाया है. वो मोदी सरकार पर इन संस्थाओं के मान-भंग के आरोप लगा रही हैं. वो भूल रही हैं कि उन्होंने भारत की सेना के खिलाफ तख्तापलट का आरोप लगाया था, कहा था कि सूबे की सरकार से पूछे बगैर पश्चिम बंगाल में सेना तैनात की जा रही है. उनका दावा सबूतों की रोशनी में एकदम ही हवा-हवाई साबित हुआ. तत्कालीन रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने लोकसभा में बताया कि पश्चिम बंगाल तथा पूर्वोत्तर में सेना तैनात करना एक रुटीन एक्सरसाइज (रोजमर्रा की कवायद) है.
ममता बनर्जी को यह भी लगता है कि मोदी सरकार लोकतंत्र में स्वाभाविक माने जाने वाले शिष्टाचार के बर्ताव नहीं करती. अब यहां दरअसल रुककर पूछना होगा कि शिष्टाचार के बरताव से उनका मतलब क्या है- क्या प्रधानमंत्री के भाषण को बंगाल के स्कूलों तथा कॉलेजों में 2017 में कई दफे टेलीकास्ट ना होने देना शिष्टाचार के दायरे में ही आता है?
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक निर्देश जारी किया था कि विवेकानंद के शिकागो धर्म-संसद वाले व्याख्या की 125वीं वर्षगांठ पर 11 सितंबर के दिन प्रधानमंत्री मोदी जो भाषण दे रहे हैं उसका लाइव टेलिकास्ट दिखाया जाय. पश्चिम बंगाल ने इस निर्देश की अनदेखी की और अनदेखी की वजह समझाते हुए सूबे के शिक्षामंत्री पार्थो चटर्जी ने कहा कि ‘हमें ऐसा करना मंजूर नहीं, यह तो सीधे-सीधे शिक्षा के भगवाकरण का मामला है.’
अगर मोदी के उस भाषण को शिक्षा के भगवाकरण की कोशिश माना जाए तो फिर उस कवायद को क्या कहिएगा जिसके जरिए रामधोनु (इंद्रधनुष) तथा अकाशी सरीखे सर्व-प्रचलित बांग्ला शब्दों को पश्चिम बंगाल में रंगधोनु तथा असमानी सरीखे शब्दों से बदला जा रहा है?
ऊपर के उदाहरणों से जाहिर होता है कि ममता बनर्जी का लोकतंत्र, संविधान या फिर सार्वजनिक संस्थानों की हिफाजत का दावा खोखला और पाखंड भरा तो है ही, राजव्यवस्था के लिए एक खतरा भी है.
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