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बिरसा मुंडा जयंती: ” सभ्यता और विरासत की कहानी”

देश की समृद्ध संस्कृति की ध्वजा वाहक भारत की जनजातियां अपनी सभ्यता और विरासत की जड़ों को सहस्त्रों सदियों से रसातल से सींचती आई हैं। ‘निसर्ग का शोषण नहीं दोहन’ के मूल मंत्र को आत्मसात कर, निसर्ग तंत्र से अपना जीवन यापन करने वाले अत्यंत सीधे-साधे जनजाति लोग भारतीय विचार को अनवरत उन्नत करने में लगे हैं। जनजातीय समाज का प्रकृति की गोद में सहज ढंग से जन्म से मरण तक का संबंध और तारतम्य इतना गहरा है कि दोनों को अलग करके नहीं देखा जा सकता। जनजातीय समाज इस आधुनिक दिखावे के युग में और भौतिक विकास में बेशक पिछड़ गया लगता हो, लेकिन देश की उन्नति में जनजातियों का योगदान अतुलनीय है। स्वतंत्रता संग्राम में भी जनजाति समाज के हजारों क्रांतिकारियों ने अपना बलिदान दिया है।

15 नवम्बर 1875 को जनजातीय समाज में जन्में बिरसा मुंडा ने 24 दिसम्बर 1899 को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संग्राम का बिगुल फूंका। यह उन्होंने तब किया जब वो मात्र 19 वर्ष के थे और उस दौर में अंग्रेजों के सामने किसी की बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। उस समय भगवान बिरसा मुंडा ब्रिटिश शासन से पूरी बहादुरी के साथ लड़े। एक वर्ष तक उन्हें यातनाएं सहनी पड़ी और अंतत: जेल में ही उनका बलिदान हो गया। स्व-धर्म, स्व-शिक्षा और स्व-देश का नारा बुलंद करते हुए, भगवान बिरसा मुंडा ने मिशनिरयों द्वारा बिरसा से डेविड बनाए गए समाज को पुन: बिरसा बनाने का ऐतिहासिक कार्य किया। यह कोई सामान्य बात नहीं है कि 25 वर्ष की आयु में एक गरीब परिवार में जन्में बिरसा मुंडा ने अपने कर्मो के आधार पर भगवान का दर्जा प्राप्त किया और उनका जीवन सैकड़ों वर्ष के बाद भी हमें प्रेरित कर रहा है।

उनके नेतृत्व के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए, विगत वर्ष आजादी के अमृत महोत्सव में जनजातीय क्रांतिकारियों के योगदान को याद करते हुए भगवान बिरसा मुंडा की जयंती को ‘राष्ट्रीय जनजाति गौरव दिवस’ (15 नवम्बर) के रूप में घोषित करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनके अमर बलिदान को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की। नरेन्द्र मोदी का यह निर्णय न सिर्फ जनजाति समाज बल्कि देश की 135 करोड़ जनता के लिए गौरव का विषय है। जनजातीय समाज का इतिहास राम, रामायण और महाभारत काल से रहा है। वानर, राजा निषादराज, केवट, सबरी और माता भीलनी के उदाहरण हम सबके सामने हैं। महाभारत में भी ऐसा वर्णन आता है कि पूर्वोत्तर में कुंती पुत्र अर्जुन की यात्रा के दौरान उनका सामना नागा जनजाति की राजकुमारी उलूपी से हुआ, जिससे उन्होंने शादी की और उन्हे एक बेटा हुआ-इरावन। विश्व के सुप्रसिद्ध जगन्नाथ पुरी मंदिर का इतिहास इस बात का साक्षी है कि भगवान जगन्नाथ की मूर्ति जनजातीय समाज के महान राजा विश्वासु भील को ही प्राप्त हुई थी। आज जब दुनिया विकास और आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी संस्कृति, सभ्यता और विरासत को भूलती जा रही है, वहीं जनजातीय समाज आज भी अपनी परम्पराओं, रीति-रिवाजों और जीवन मूल्यों का सतत पालन कर रहा है। जनजाति समाज आज भी अपने उत्सवों को अपनी ही वेश-भूषा में मनाता है। जल, जंगल और जमीन के सबसे बड़े संरक्षक जनजातीय समाज में आज भी यदि कोई विवाह उत्सव होता है, तो जनजातीय समाज उसके लिए भी नदी और तालाब से हाथ जोड़कर विनती करते हुए अधिक पानी उपयोग की अनुमति लेता है।

यह कहना उचित होगा कि आज जब विश्व जलवायु परिवर्तन जैसी भयावह समस्या से जूझ रहा है, तब जनजाति जीवन दर्शन हमें समाधान का मार्ग दे सकता है। निश्चित रूप से आज आधुनिक समाज में रहने वाले लोगों के लिए जनजातीय समाज एक शोध का विषय है। स्वयं पर गर्व करना, अपनी परंपराओं और संस्कृति पर गर्व करने का संदेश जनजातीय समाज सदैव देता रहा है। जनजातीय समाज अपनी कला, कौशल और कृति के आधार पर पुरातन काल से ही एक आत्मनिर्भर समाज रहा है। उनकी आत्मनिर्भरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जनजातीय समाज द्वारा इतिहास में बड़ी-बड़ी लड़ाइयों को भी स्वनिर्मिंत हथियारों (तीर, धनुष, दंड, भाला, पत्थर के नुकीले हथियारों) से ही लड़ा है। इसी परिप्रेक्ष्य में आचार्य चाणक्य ने सम्राटों से कहा था कि ‘आप वन्य क्षेत्र में बसे हुए योद्धाओं के साथ युद्ध का प्रयास न करें, इससे आपके राज्य को और आपकी सेना को भारी नुकसान का सामना करना पड़ सकता है’।

जनजातीय समाज के लोगों के पास आत्मविश्वास और प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। पिछली सरकारों में दुर्भाग्य यह रहा कि जनजातीय समाज को वो हक नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे। मगर विगत 8 वर्षो से प्रधानमंत्री मोदी ‘सबका साथ-सबका विकास’ और ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ की मूल भावना से देश का नेतृत्व कर रहे हैं। इसी का परिणाम है कि जिस जनजातीय समाज को हमेशा हास्य पर रखा गया, उसे आज मुख्यधारा में जोड़कर विकास में भागीदारी बनाया जा रहा है। देश में रिवाज बदल रहा है, जो देश के सर्वोच्च सम्मान (पदम श्री, पदम भूषण, पदम विभूषण) गिने-चुने लोगों को या उनके ही परिवार को मिलते थे, आज देश के सैकड़ों आदिवासी लोगों को राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान के प्रति वही सम्मान खोज-खोज कर दिया जा रहा है।

2014 में जनजातीय मंत्रालय ने अपने बजट में 3800 करोड़ों रु पये खर्च किए, मगर 8 वर्षो में वह बजट 8,451 करोड़ रु पये हुआ है। आदिवासी बच्चों की बेहतर शिक्षा के लिए केंद्र सरकार 750 ‘एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालयों’ का निर्माण कर रही है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लगभग 85 क्रांतियों में भाग लेने वाले जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों को पहचान दिलाते हुए, भारत सरकार देश भर में 10 जनजातीय संग्रहालयों का निर्माण कर रही है। विभिन्न कृषि केंद्रीय क्षेत्र की योजनाएं, जैसे राष्ट्रीय बेम्बू मिशन, राष्ट्रीय मधुमक्खी पालन और शहद मिशन से आदिवासी आबादी को लाभ हो रहा है। स्वयं सहायत समूह में मिलकर आज जनजातीय समाज की अनेक महिलाएं आत्मनिर्भर बनने की दिशा में काम कर रही हैं, और भी अनेक योजनाओं के साथ नरेन्द्र मोदी सरकार जनजातीय समाज के उत्थान के लिए संकल्पबद्ध है।

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